आइसक्रीम के नाम पर आखिर बिक क्या रहा है?

अकसर जब भी आईसक्रीम की बात चलती है तो अपना बचपन याद आ ही जाता है …जब पांच पैसे में हमें वह साईकिल पर आने वाला बर्फ की कुल्फ़ी से ही बेहद खुशियां दे जाता करता था, है कि नहीं? …और जब कभी अपना बजट 10 पैसे का होता था तो वह तीले वाली कुल्फ़ी खरीद लिया करते थे …जिसे वह रेहड़ीवाला हमें थमाते समय रबड़ी में डुबोना कभी नहीं भूला करता था। आज जब पीछे देखता हूं तो लगता है कि उस ज़माने में तीले वाली कुल्फ़ी खाना भी शायद एक टुच्चा-सा स्टेट्स सिंबल ही हुआ करता था।
उन दिनों की ही बात है … बर्फ के गोले खाने वाले दिन। कोई सोच विचार नहीं कि बर्फ किस पानी की बनी है, उस में डलने वाले रंग परमिटेड हैं कि नहीं, शक्कर की जगह सकरीन तो इस्तेमाल नहीं की गई ….कुछ भी सोच विचार नहीं, बस बर्फ़ के गोले वाले ने बनाया गोला और हम टूट पड़ते थे उस पर वहीं ही …और वह बार बार उस पर मीठा रंग डलवाने का सिलसिला।
अरे यार, यह तो मैं किधर का किधर का निकल गया … बात चल रही थी आइसक्रीम की और फ्रोज़न-डेज़टर्स की….अब बचपन की यादें शेयर करने लगूंगा तो हो गई मेरी बात पूरी !!
अच्छा तो उस दुकानदार ने मुझे वह अपनी दुकान में लगा पोस्टर भी दिखा दिया और अपनी आइसक्रीम के ही आइसक्रीम होने के दावे को मेरे सामने पेश कर दिया। बात आई गई हो गई और मैंने अपनी बीवी-बच्चों से भी यह बात कही …उन्होंने भी इस पर छोटी मोटी टिप्पणी कर के अपने अपने आइसक्रीम-कप की तरफ़ ध्यान देना ही ज़ारी रखा।